मंगलवार, नवंबर 30

तब की शादी, अब की शादी

सर्जना शर्मा

 आजकल शादियों का सीज़न है ।
इस साल बहुत सारे शुभ मुहुर्त हैं । मेरे नाते रिश्तोदारों और मित्रों के यहां भी  शादियां हो रही हैं । जब छोटे थे तो शादी का नाम सुन कर बहुत मज़ा आता था एक स्कूल से हफ्ता दस दिन की छुट्टी उपर से नए कपड़े और फिर नाते रिश्तेदारी में जा कर जो मजे आते उसका तो कहना ही क्या । मेरी मां अपने पांच भाई बहनों में सबसे छोटी हैं इसलिए मेरी मौसी और मामा की बेटियों और बेचों की शादियों में जितने मज़े हमने लूटे शायद ही किसी ने लूटे हों । एक तो नानी , मामा , मामी मौसी और मौसा का लाड़ दुलार और फिर हमारी मां की क्या हिम्मत कि अपने बड़े भाई बहनों के सामने हमें डांट दें या एक दो थप्पड़ रसीद कर दें । फिर सात सात दिन पहले बान ( हल्दी की रस्म )  शुरू हो जाती और रात को गीत होते जिस पर ढ़ोलक की थाप पर ब्याह के लोक गीत गाए जाते । पांवों में घुंघुरू बांध कर महिलाएं खूब नाचतीं । खूब बन्नियां गायीं जातीं । घर में ही हलवाई बैठता था । मिठाइयां बनती देखते । और लड़की शादी में तो दुल्हन के खास चहेते बने रहते । क्योंकि उनदिनों में जिसकी शादी होती थी उसे कंगना बंधने के बाद घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं होती थी । और वो एक कमरे में बैठीं रहती जहां देवताओं का थापा लगता था और चौबीस घंटे दिया4 जलता रहता था । उनके काम करने में बहुत मज़ा आता । और अपने को थोड़ा वीआईपी भी महसूस होता क्यों कि जिसकी शादी है वो वीआईपी तो फिर हम जब उनके आगे पीछे घूम रहे हैं तो हम भी वीआई पी । लेकिन कबी खबी हम देखते कि जिसकी शादी है वो रोती रहतीं और खाना नहीं खाती थीं मायका छूटने का दुख जो रहता । फिर सारे परिवार की महिलाएं उनकी मनुहार करतीं उन्हें समझातीं कि कुछ तो खा लो पराए घर जाना है । अपनी सेहत ठीक  रखों । घऱ को सजाने के लिए उन दिनों रंगबिरंगे गुड्डी  कागज़ की बंदनवार से घर सज जाता लाल नीला हरे रंग का शामियाना लगता पत्तल और मिट्टी के सकोरे आते । पूरा परिवार इन्हीं में खाता  पिता । मिट्टी के सकारे में जब पानी डाला जाता तो उसकी खुश्बु मुझे बहुत अच्छी लगती ।
                              बारात आती तो शोर मच जाता नस्सो (नौशा)  गया बन्ना आ गया । हम बच्चे तो भागे चले जाते और फिर घर आ कर पूरी सूचना महिला मंडली को देते हमसे हमारी नानी ,मामी मौसियां और बड़ी बड़ी बहने जिन्हें बारात के सामने जाने की अनुमति नहीं थीं बेसब्री से हमारा इंतज़ार करतीं और बारात के बारे में पूरी जानकारी लेतीं बन्ना कैसा है कितने लोग आए देखने में सब कैसे हैं कोई लड़की भी आयी क्या । उनदिनों उत्तर प्रदेश में महिलाएं बारात में नहीं जाती थीं केवल आठ दल साल तक की लड़कियों को भी मुश्किल से बारात में लाया जाता था । बारात एक या दो दिन रूकती थी और जनवासे में बारात की खूब खातिरदारी की जाती औऱ घर आने पर भी । जिस दिन फेरे होते उस दिन घर की सबी महिलाओं का व्रत होता था । और सबकी आंखें भीगीं रहती इधर उधर चलते फिरते अपनी साड़ के पल्लु से आंखें पोंछती रहती हमें बहुत अटपटा लगता कि शादी का दिन तो खुशी का दिन है ये रो क्यों रही हैं । अब समझ आता है कि वेटी को विदा करने का दुख आंसू बन कर बहता रहता था । बारात आने से पहले ऱघ तो क्या पूरे गांव को आदमी खानी नहीं  खाता था क्योंकि बेटी की शादी है । बारात की अगवानी में सभी रिश्तेदार और सारा गांव मौजूद रहता । और बारात को बिठा कर अच्छे से खाना खिलाया जाता . तब हलवाई होता था कैटर्रस नहीं बायरे नहीं होते थे लड़की पक्ष बारात की खातिरदारी स्वयं करता । और रात बारह8 बजे के बाद सप्तपदी शुरू होती । जिसमें कम से कम पांच से छह घंटे लगते। फेरे पूरे होने पर दुल्हे को उस कमरे में लाया जाता जहां देवताओं और पितरों के थापे लगे रहते । फिर दुल्हे से छन सुने जाते । दुल्हा दुल्हन कंगना खेलते औऱ इस सब में कईं बार तो सुबह हो जाती थी । फिर विदाई से पहले की भी बहुत सी रस्में होतीं . हमारे परिवार में विदाई से पहले पलंग पुजाई की रस्म होती है । इसमें दुल्हन और दुल्हे को पलंग पर बैठाया जाता है । वधु पक्ष की सभी विवाहित महिलाएं अपने पति के साथ दुल्हा और दुल्हन की लक्ष्मी जी और विश्णु जी के रूप में पूजा करती हैं ।  दुल्हन अपने हाथों से सबको धान देती रहती है और जोड़ी समेत सब उनके पलंग के इर्द-गिर्द परिक्रमा करते हैं और धान से उनके पांव पूजते हैं दुल्हे को टीका किया जाता है जिसमें शगुन और  सूखा नारियल दिया जाता है और उसके बाद परिवार के सभी दामादों का भी टीका किया जाता है ।
                                      और सबसे मार्मिक होती थी विदाई की बेला । बैंड वाले धुन बजाते बाबुल की दुआएं लेती जा , जा तुझको सुखी संसार मिले और सबकी आंखों से गंगा जमुना की धारा बहती रहती और विदा हो रही बेटी तो सबसे लिपट लिपट कर रोती रहती ।
       लेकिन अब शादी के तौर तरीके पूरी तरह से बदल गए हैं । अब किसी के पास समय ही नहीं है कि सात दिन या दस दिन पहले चला जाए । अब तो बारात भी कुछ घंटों की होती है । शहर के शहर में शादी है तो बस जाओं और खाना खार आ जाओं और शगुन दे आओ । अब ना बारातियों की कद्र है ना ही घरातियों की । शादियों में  शान शौकत सजावट पर ज़ोर है रस्मों रिवाज़ पर नहीं । खाने पीने के स्टॉल ज़रूर बढ़ गए हैं लेकिन मनुहार करने वाला कोई नहीं सब अपने में व्यस्त । महिलाओं पर तो एकता कपूर के सिरीयलों का असर साफ दिखाई देता है । एकता कपूर ने महिलाओं के परिधान और साज सज्जा में अभूतपूर्व परिवर्तन किया है । ब्यूटी पार्लरों , नकली ज्यूलरी , चूड़ी बिंदी वालों की तो चांदी ही चांदी है । आप खरीद नहीं सकते तो कोई बात नहीं किराए पर ले लिजिए . सब कुछ मिलता है एक से एक  लहंगें साड़ी नकली गहने । औऱ ये प्रभाव शहरों में ही नहीं गांवों में भी साफ नज़र आ रहा है ।

  शहनाई के मधुर स्वर और बैंड की जगह अब डीजे ने ले ली है । इतनी  ज़ोर ज़ोर से बजता है कि कान को कान सुनाई नहीं पड़ता । और फिर खाना है बूफे . खाने की आइचम चाहे पचास सौ हों लेकिन प्लेट तो एक ही है । आप अपना पर्स संभालिए , साड़ी संभालिए , बच्चे संभालिए या फिर खाने की प्लेट । अबी हाल ही में मैं अपनी भतीजी की शादी में गांव में गयी वहां भी बूफे था । एक लड़का अपनी प्लेट में प्लास्चिक के ग्लास में रख कर रायता लाया था । उसका संतुलन ज़रा सा बिगड़ा तो सारा रायता उसके थ्री पीस सूट से होता हुआ जूतों तक पर गिर गया । अब बेचारा शर्मा गया और आस पास खड़े सब लोग ज़ोर ज़ोर से हंसने लगे । ये तो एक किस्सा है मुझे ना जाने कितने लोग सुना चुके हैं कि शादी के किस भोज में कैसे उनकी साड़ियां खराब हो चुकी हैं कभी  उनकी अपनी प्लेट का संतुलन बिगड़ जाता है तो कभी कोई दूसरा उनके  कीमती वस्त्रों का कल्याण कर देता है ।
कई शादियों में तो मैनें देका है कि छोटे बच्चों वाली महिलाएं फ्लेट ले कर ज़मीन पर ही बैठ जाती हैं और अपने बच्चों  को खाना खिलाती हैं । पश्चिम  की अंधाधुंध नकल ने शादी ब्याह का मज़ा छोड़ा ही नहीं है । दुल्हा दुल्हन में लोगों की कम ही रूचि रहती है दिल्ली में भी  ना जाने कितनी शादियों मैं जाना होता है । पंहुचते ही सबसे पहले लोग खाने का मीन्यू देखते हैं । खाया पीया शगुन हाथ में थमाया और चलते बने । लड़की की शादी है तो बारात के आने का इंतज़ार भी नहीं करते । फेरे तो बहुत दूर की बात है । लड़की पक्ष के लोग ही खाने के पंडाल में घमासान मचा देते हैं । खईं बार तो प्लास्टिक के गिलासों और पेपर प्लेटों से पंडाल की सूरत बिगड़ सी जाती है मैं सोचती हूं कि क्या बारात का स्वागत इन जूठी पड़ी प्लेटों से होगा क्या बारात बची खुची जूठन खायेगी ।
                             
   जयमाला तक ही लोग रूक जाएं तो गनीमत उस में भी  दुल्हा दुल्हन कईं बार मंच पर बेगाने से बैठे रहते हैं क्योंकि बाराती घराती खाने पीने  और कानफोडू डीजे पर नाचने में मस्त रहते हैं । विवाह की सबसे महत्वपूर्ण रस्म फेरे यानि सप्तपदी अब सबसे गौण रस्म रह गयी है । यहां तक कि अपने सगे नाते रिश्तेदार भी फेरों के लिए रूकना पसंद नहीं करते । अभ की शादियां देखती हूं तो मेरे बचपन कि वो तस्वीरें जाता हो उठती हैं जब पूरा घर परिवार बरात पर न्यौछावर हुआ जाता था । हमारी मां नानी , मामी , मौसियां सब फेरे पूरे होने के बाद ही चायपीतीं या कुछ खाती थीं ।     आप शायद सोच रहे होंगें कि ज़माना कहां चला गया और मैं कितनी पुराने ढ़र्रे की बातें कर रही हूं । लेकिन आप सब को अगर मेरी बात पर आपत्ति ना हो तो एक बात कहना चाहूंदू कि हम उतेतर भारतीय अधकचरी संस्कृति में जी रहे हैं । अपने दक्षिण भारतीय, बंगाली और मैथिल ब्रह्माणों की की शादियों में मैने परंपरा और रिती रिवाजों का पूरा पालन होते देखा है । खई ंमामलों में तो दुल्हा दुल्हन दोनों विदेशों में पढ़े लिखे थे और वहीं नौकरी कर रहे थे   । लेकिन परंपरा और रीति रिवाज़ से कोई समझौता नहीं ।  मेरे ऑफिस में मेरी एक सहकर्मी की शादी हुई हांलांकि वो पंजाबी है लेकिन लड़का तमिल ब्रह्माण है । विवाह दिन में हुआ , दक्षिण भारतीय विधी विधान से          हुआ . शहनाई और नाद स्वरम से हाल गूंज रहा था । मेहमानों का कुंकुम और हल्दी से स्वागत किया जा रहा था महिलाओं को चमेली और मोंगरे के गजरे दिए गए औऱ शादी की दावत तो बस क्या कहने । सप्तपदी के बाद  केले के पत्ते पर सात्विक  भोजन परोसा गया औऱ मान मुहार के साथ भोजन कराया गया ।     दक्षिण भारतीय इसे भगवान विष्णु और लक्ष्मी जी का मिलन मानते हैं इसलिए भोजन शुद्ध शाकाहारी रहता है ।
                            विवाह सनातन परंपरा के सोलह संस्कारों में सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है । विवाह को दो व्यक्तियों का नहीं बल्कि दो आत्माओं का आध्यात्मिक मिलन माना गया है । ऋग्वेद  औऱ  अथर्ववेद के विवाह सूक्त के आधार पर हमारे ऋषिमुनियों ने विवाह पद्धति बनायी । विवाह  पद्धति   उतनी ही पुरानी है जितना हमारा सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद । ऋग्वेद के दसवें मंडल का 85 वां सूत्र औऱ अथर्ववेद के 14 वें कांड का पहला सूत्र विवाह सूक्त कहलाता है ।   औऱ विवाह एक सामाजिक , धार्मिक अनुष्ठान है । दो व्यक्ति अपना जीवन एक साथ बिताने जारहे हैं । गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने जा रहे हैं । गृहस्थ आश्रम को श्रेष्ठ    माना गया है । दुनियावी ज़िम्मेदारियों के साथ धर्म की राह पर चलते हुए जीवन यापन । जीवन की उंची नीची राहों पर एक साथ चलने, एक बंधन में बंधने के मौके पर सबसे अहम है सप्पदी और दुख की बात है कि इसी पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है । वर पक्ष कईं बार तो पंड़ित जी से कहते सुना जाता है पंड़ित जी बस आदे घंटे में फेरे करा दो । एक पूरा अनुष्ठान जिसका एक एक मंत्र मह्तवपूर्ण है । जिसकी एक एक रस्म महत्वपूर्ण है । जो एक मस्त युवक को एक जिम्मेदार पति और एक अल्हड़ युवती को एक ज़िम्मेदार पत्नी बनाती है वही सबसे ज्यादा उपेक्षित क्यों । मैं आजकल अपने चैनल पर एक कार्यक्रम बना रही हूं विवाह मंथन । इसके तहत मुझे बहुत रिसर्च करनी पड़ती है । मैनें भी बहुत शादियां देखी लेकिन मुझे भी पूरी तरह से विवाह की रस्मों का ज्ञान नहीं ता लेकिन अब जब मैनें सप्तपदी के बारे में पढ़ा तो मैं  हैरान रह गयी कि सप्तपदी एक युवक और एक युवती को केवल पति पत्नी नहीं बनाती उन्हें सखा भी बनाती है । और विवाह सप्तपदी का हर पद महिला के परिवार में ऊंमचे दर्जे मान सम्मान का प्रतीक है और सातंवां पर पूरा होने पर दोनों सखा बन जाते हैं सातवें पद में वर वधु से कहता है ---- ऊं सख्ये सप्पदा भव सा मामनुव्रता भव।
यानि
हे देवि सातवां चरण तुम मित्रता के लिए उठाओ , मेरा जीवन व्रत अपनाओ , घर को स्वर्ग बनाओ ।
                                                                                                                                          आप ये भी जान लिजिए कि केवल सप्तपदी ही उन्हे जीवन साती नहीं बना देती वधु भी दुल्हे से सात वचन लेती है और तब जाकर उसके वाम अंग में बैठती है । विवाह जैसे महत्वपूर्ण अवसर को हमने केवल एक तमाशा बना कर रख दिया है । विवाह के अवसर हम दिखावे के बजाए अगर परंपरा निभाएं तो बेहतर होगा । भव्य पंडाल , खाने का लंबा चौड़ा मीन्यू कान फोडू डीजे के बजाए इसे एक पारिवारिक सामाजिक उत्सव की तरह ही मनाएं तो शादियों में वैसा ही आनंद आने लगेगा जैसा 60 , 70 और 80 के दशक में आया करता था । छोटे पर्दे के सीरीयलों की शादियों की नकल भी अंधाधुध हो रही है । बड़े बड़े उद्योगपति तो अब बॉलीवुड स्टार्स को बुला कर अपनी शादियों की शान बढ़ा रहे हैं इस पर करोड़ों रूपए खर्च कर रहे हैं और मिडल क्लास का आदर्श अमीर वर्ग रहता ही है वे बालीवुड स्टार नहीं बुला पाते तो कुछ ऐसे ऑर्केस्ट्रा बुलाते हैं जिनमें आइटम  गर्ल्स होती हैं । ये कहीं ना कहीं सामंतवादी प्रवृति का प्रतीक भी है । इक्सवीं सदी में जब बहुत कुछ बदल रहा है तो अपनी परंपराओं और संस्कृति को सहेजे रख कर हम आगे बढ़े तो बेहतर होगा ।